एक गीतकार जो सिर्फ जाति के कारण भुला दिया गया
महान गीतकार शैलेंद्र को सुनते हुए शायद कभी ये बात ज़ेहन में नहीं आई होगी कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में कालजयी गीतों की रचना करने वाले शैलेन्द्र को कभी कोई बड़ा पुरस्कार नहीं मिला।
उनका जीवन जातिय भेदभाव की परछाईयों के साये में आगे बढ़ा और बेहद मुफ़लिसी के बीच खत्म हुआ। इसी का नतीजा था |
कि शैलेंद्र सिनेमाई जमीं के अज़ीम फनकार होते हुए भी जाति के चलते भुला दिए गये।
दरअसल शैलेन्द्र का असली नाम था शंकरदास केसरीलाल। वे मूलरूप से बिहार के आरा के धूसपुर गांव के धुसी चमार जाति के थे।
उनका जन्म पाकिस्तान के रावलपिंडी में हुआ था। उनके पिता की तबियत खराब होने पर उनका परिवार जब बहुत मुश्किलों में फंस गया तो वे लोग उत्तरप्रदेश के मथुरा में उनके चाचा के पास आ गये।
मथुरा से ही बेहद गरीबी के बीच शैलेन्द्र ने मैरिट तक की पढ़ाई पूरी की।
इलाज के पैसे ना होने की वजह से अपनी एकलौती बहन को उन्होंने आँखों के सामने ही खो दिया। बचपन में जब शैलेंद्र हॉकी खेला करते थे |
लेकिन साथ खेलने वाले लड़के उनकी जाति को लेकर बुरा व्यवहार करते थेl उन्हें अक्सर ये तंज सुनना पड़ता था |
कि “अब ये लोग भी खेलेंगे”l परेशान होकर उन्होंने खेलना ही छोड़ दिया। पढ़ाई पूरी कर के वो बम्बई गए वहाँ रेलवे में नौकरी भी की पर अधिकारियों के परेशान करने के कारण वह भी छोड़नी पड़ी।
उन्हें कविता का शौक था ही, एक कविता पाठ समारोह में उनका राज कपूर से मिलना हुआ और यहीं से उनकी सिनेमा जगत में इंट्री भी हुई। शैलेन्द्र ने एक से बढ़कर एक खूबसूरत गीत लिखे।
उन्होने़ 800 से ज्यादा गीत लिखे और उनके लिखे ज्यादातर गीतों को बेहद लोकप्रियता हासिल हुई। इनमें
‘आवारा’ ‘दो बीघा जमींन’, ‘श्री 420’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’
, ‘संगम’, ‘ आह’, ‘ सीमा’, ‘मधुमती’, ‘जागते रहो’, ‘गाइड’, ‘काला बाजार’, ‘बूट पालिस’, ‘यहूदी’, ‘अनाड़ी’,‘पतिता’, ‘दाग’,
‘मेरी सूरत तेरी आंखें’, ‘बंदिनी’, ‘गुमनाम’ और ‘तीसरी कसम’ जैसी महान फ़िल्मों के गीत शामिल हैं।
उन्होंने अपने गीतों में वंचना का शिकार लोगों की पीड़ा को ज़ुबान दी। अपने गानों में उन्होंने समतामूलक समाज निर्माण और मानवतावादी विचारधारा को शब्दों में पिरोया है।
उन्होंने दबे-कुचले लोगों को संघर्ष का नारा दिया था ...
“यह नारा इस प्रकार से था... हर जोर-जुल्म कि टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है। ”
उन्होंने सिनेमा में काम करने के लिए अपना तखल्लुस या उपनाम को ही नाम के रूप में प्रयोग किया।
ये वो दौर था जब दलितों और मुसलमानों को सिनेमा में सफल होने के लिए अपना नाम बदलकर अपनी पहचान छुपानी पड़ती थी |
शैलेन्द्र के दलित होने की जानकारी उनकी मौत के बाद पहली बार सार्वजनिक तौर से तब सामने आयी जब उनके बेटे दिनेश शैलेंद्र ने अपने पिता की कविता संग्रह
जिसका नाम 'अंदर की आग' था, इसकी भूमिका में इसके बारे में लिखा।
इस भूमिका को पढ़ने के बाद साहित्य जगत के मठाधीशों ने दिनेश को जातिवादी कहते हुए उनकी जमकर आलोचना की थी |
भारत में जब तथाकथित अपर कास्ट ब्राह्मण-क्षत्रिय होने की बात को छाती ठोक कर बताते हैं तो उनका ये जातिय दंभ सबको नॉर्मल लगता है|
लेकिन वहीं पर जब कोई दलित अपनी आइडेंटिटी को लेकर असर्ट करता है तो उसे जातिवादी होने का तमगा थमा दिया जाता है।
बहरहाल शैलेंद्र ने तमाम मुश्किलों के बाद भी खुद के सपनों का पीछा किया और वो मुक़ाम हासिल किया जो आज तक कोई गीतकार हासिल न कर सका।
वे हम बहुजनों के रोल मॉडल हैं। उन्हीं के शब्द हैं- "तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यक़ीन कर।"
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