कविता (Poet)
1. कविता की परिभाषा क्या है ?
कविता क्या है? जब कवि
"भावनाओ की प्रसव" से गुजरते है तो कविताए प्रस्फूटित होते है।
कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है। सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं।
वे मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं। उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की जरूरत नहीं पड़ती।
♥ कविता लेख के मुख्य बिंदुओ...
1. कविता की परिभाषा क्या है ?
2. कविता से कार्य में प्रवृत्ति कैसे बढ़ती है ?
3. कविता की आवश्यकता क्यों पड़ती है ?
4. कविता की भाषा कैसी होनी चाहिये ?
कविता की प्रेरणा से मनोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं। तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है।
यदि क्रोध, करूणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल जाएँ तो वह कुछ भी नहीं कर सकता।
कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है। हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं।
कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है। हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है।
2. कविता से कार्य में प्रवृत्ति कैसे बढ़ती है ?
कविता की प्रेरणा से कार्य में प्रवृत्ति बढ़ जाती है। केवल विवेचना के बल से हम किसी कार्य में बहुत कम प्रवृत्त होते हैं। केवल इस बात को जानकर ही हम किसी काम के करने या न करने के लिए प्रायः तैयार नहीं होते,
कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक। जब उसकी या उसके परिणाम की कोई ऐसी बात हमारे सामने उपस्थित हो जाती है |
जो हमें आह्लाद, क्रोध और करूणा आदि से विचलित कर देती है तभी हम उस काम को करने या न करने के लिए प्रस्तुत होते हैं।
केवल बुद्धि हमें काम करने के लिए उत्तेजित नहीं करती। काम करने के लिए मन ही हमको उत्साहित करता है।
3. कविता की आवश्यकता क्यों पड़ती है ?
कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है? बात यह है |
कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फंसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता जाती रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जागृत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है।
कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पावे। जानवरों को इसकी जरूरत नहीं। हमने किसी उपन्यास में पढ़ा है |
कि एक चिड़चिड़ा बनिया अपनी सुशीला और परम रुपवती पुत्रवधू को अकारण निकालने पर उद्यत हुआ।
जब उसके पुत्र ने अपनी स्त्री की ओर से कुछ कहा तब वह चिढ़कर बोला, ‘चल चल! भोली सूरत पर मरा जाता है’ आह! यह कैसा अमानुषिक बर्ताव है! सांसारिक बन्धनों में फंसकर मनुष्य का हृदय कभी-कभी इतना कठोर और कुंठित हो जाता है |
कि उसकी चेतनता - उसका मानुषभाव - कम हो जाता है। न उसे किसी का रूप माधुर्य देखकर उस पर उपकार करने की इच्छा होती है,
न उसे किसी दीन दुखिया की पीड़ा देखकर करूणा आती है, न उसे अपमानसूचक बात सुनकर क्रोध आता है।
ऐसे लोगों से यदि किसी लोमहर्षण अत्याचार की बात कही जाए तो, मनुष्य के स्वाभाविक धर्मानुसार, वे क्रोध या घृणा प्रकट करने के स्थान पर रूखाई के साथ यही कहेंगे -
“जाने दो, हमसे क्या मतलब, चलो अपना काम देखो.” याद रखिए, यह महा भयानक मानसिक रोग है।
इससे मनुष्य जीते जी मृतवत् हो जाता है। कविता इसी मरज़ की दवा है।
4. कविता की भाषा कैसी होनी चाहिये ?
मनुष्य स्वभाव ही से प्राचीन पुरुषों और वस्तुओं को श्रद्धा की दृष्टि से देखता है।
पुराने शब्द हम लोगों को मालूम ही रहते हैं। इसी से कविता में कुछ न कुछ पुराने शब्द आ ही जाते हैं।
उनका थोड़ा बहुत बना रहना अच्छा भी है। वे आधुनिक और पुरातन कविता के बीच सम्बन्ध सूत्र का काम देते हैं।
हिन्दी में ‘राजते हैं’ ‘गहते हैं’ ‘लहते हैं’ ‘सरसाते हैं’ आदि प्रयोगों का खड़ी बोली तक की कविता में बना रहना कोई अचम्भे की बात नहीं। अँग्रेज़ी कविता में भी ऐसे शब्दों का अभाव नहीं जिनका व्यवहार बहुत पुराने जमाने से कविता में होता आया है।
‘Main’ ‘Swain’ आदि शब्द ऐसे ही हैं।
अंग्रेज़ी कविता समझने के लिए इनसे परिचित होना पड़ता है। पर ऐसे शब्द बहुत थोड़े आने चाहिए, वे भी ऐसे जो भद्दे और गंवारू न हों।
खड़ी बोली में संयुक्त क्रियाएँ बहुत लंबी होती हैं, जैसे - “लाभ करते हैं,” “प्रकाश करते हैं” आदि। कविता में इनके स्थान पर “लहते हैं” “प्रकाशते हैं”
कर देने से कोई हानि नहीं, पर यह बात इस तरह के सभी शब्दों के लिए ठीक नहीं हो सकती। कविता में कही गई बात हृत्पटल पर अधिक स्थायी होती है।
नीचे कुछ पद्य उदाहरण-स्वरूप दिए जाते हैं -
☆ (क) धन्य भूमि वन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाँव तुम धारा। -तुलसीदास
☆ (ख) मनहुँ उमगि अंग अंग छवि छलकै।। -तुलसीदास, गीतावलि
☆ (ग) चूनरि चारु चुई सी परै चटकीली रही अंगिया ललचावे
☆ (घ) वीथिन में ब्र में नवेलिन में बेलिन में बनन में बागन में बगरो बसंत है। -पद्माकर
☆ (ङ) रंग रंग रागन पै, संग ही परागन पै, वृन्दावन बागन पै बसंत बरसो परै।
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